Monika garg

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लेखनी कहानी -03-Jul-2023# तुम्हें आना ही था (भाग:-14) # कहानीकार प्रतियोगिता के लिए

गतांक से आगे:-


रानी का प्रसव काल नजदीक आता जा रहा था ।एक रात उन्हें भयंकर प्रसव पीड़ा हुई और एक पुत्री को जन्म देकर रानी स्वर्ग लोक सिधार गई।

राजा वीरभान तो पहले ही रानी के कक्ष में नहीं जाते थे । लेकिन अब दुधमुंही बच्ची को कौन सम्हाले यही सब से बड़ी दुविधा थी ।कहने को ही सही वो उनकी पत्नी ने पैदा की थी तो वो उनकी बेटी ही कहलाये गी दुनिया के लिए।

राजा वीरभान ने कनक बाई के यहां एक काम करने वाली उनकी वफादार दासी को राजकुमारी की देखरेख के लिए नियुक्त किया। राजकुमारी दिखने में ठीक-ठाक ही थी तो उसका नाम कजरी रखा गया ।दिखने में वो कोयले सी काली थी ,दांत भी बाहर की ओर थे। लेकिन राजा के घर जन्मी थी तो राजकुमारी वह स्वत ही बन गयी थी वर्ना राजकुमारियों जैसे कोई गुण नहीं थे उसमें।

कभी कभी चंद्रिका राजमहल में आ जाया करती थी राजकुमारी कजरी के साथ खेलने क्यों कि दोनों में थोड़ा सा ही अंतर था उम्र का ।"लाल हवेली" में चंद्रिका के साथ कोई खेलने वाला नहीं था ।वहीं दासी राजमहल में और लाल हवेली में काम करती थी ।उधर वो राजकुमारी कजरी को सम्हालती थी और इधर कनक बाई को उसके हाथ का किया श्रृंगार अच्छा लगता था।वह अक्सर राजकुमारी कजरी को अपने साथ लाल हवेली ले आया करती थी।


इतने वो कनकबाई की चोटी मींढी करके श्रृंगार करती इतने कजरी चंद्रिका के साथ खेला करती थी। चंद्रिका हमेशा उससे बड़प्पन वाले लाड़ प्यार करती जैसे बड़ी बहन करती है पर कजरी हमेशा उसे माती पीटती रहती थी।जब चंद्रिका अपनी मां से कहती कि कजरी मुझे मारती है तब कनक चंद्रिका को समझाती ,

"बिटिया हम इसके पिता की दया पर ही अपना जीवनयापन कर रहे हैं ।देखो वो मारे चाहे तुम्हें दुत्कारे तुम उसे कुछ नहीं कहोगी।"


"पर क्यों मां? राजा जी मुझ से भी तो बहुत प्यार से बात करते है।" चंद्रिका ने मायूस होकर कहा।


अब कनक बाई उसे क्या समझाए कि राजा वीरभान उसकी मां के कारण उससे प्यार से बतियाते हैं । क्यों कि कनकबाई ने उन्हें अपना दीवाना बना रखा था ।

  वैसे कुछ कुछ भनक कनकबाई को लग गई थी कि राजकुमारी राजा वीरभान की अपनी पुत्री नहीं है क्योंकि राजा जब नशे में होते थे तो बड़बड़ाते हुए कहते थे "इस रानी ने धोखा दिया है मैं इसे कभी माफ नहीं कर सकता।"

दूसरा कोई अपनी पत्नी से कितना भी ख़फ़ा हो लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि वो सालों अपनी पत्नी के पास नहीं जाएं।


धीरे-धीरे चंद्रिका बड़ी होने लगी । उसका रुप लावण्य निखरने लगता था ।यथा नाम तथा रूप वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी ।रंग ऐसा कि दूध में केसर मिला दी हो,आंखें किसी चंचला हिरणी सी कानों तक खींची हुई बड़ी ही मनमोहक थी ,नाक सुतवा सा , ओंठ जैसे कचनार की कलियां खिल उठी हो ।ओहहह..जो भी देखता चंद्रिका को वो मंत्रमुग्ध होकर देखता ही रह जाता था। उम्र के सोलहवें बसंत में चल रही थी ।कमर यौवन के भार से झुकी झुकी जाती थी  ऊपर से मृदु भाषी और गजब की नृत्यांगना थी चंद्रिका।जब वह नाचती थी तो पैर विद्युत की गति से चलते थे।भाव भंगिमा अद्भुत थी।

अब कनक बाई का यौवन ढलान पर था ।राजा वीरभान तो उसी से संतुष्ट था लेकिन दरबार में आने वाले मेहमानों और दूसरे राज्य के राजाओं के लिए एक नवयौवना नृत्यांगना की आवश्यकता थी । इसलिए राजा वीरभान ने चंद्रिका को राज नर्तकी घोषित कर दिया ।अब दरबार में चंद्रिका जब तक नहीं आती थी तो जान ही नहीं आती थी दरबार में।


इधर राजकुमारी कजरी को अधिकार तो सारे राजकुमारियों वाले मिले लेकिन पिता के प्यार के लिए वो हमेशा तरसतीं रही जिसकी कमी कभी कभी सेनापति उसे पुचकार कर पुरी कर दिया करता था।मन में एक जलन लेकर राजकुमारी कजरी बड़ी हुई थी।सेनापति भी उसे सारा दिन राजा जी के खिलाफ भड़काता रहता था जिसका ये परिणाम हुआ की राजकुमारी कजरी जलनखोर, बदतमीज,और चिड़चिड़ी सी हो गयी थी । भगवान ने रंग रूप तो दिया ही नहीं था बस सारा दिन अपना राजकुमारी होने का गुरूर सब पर झाड़ती रहती थी।


एक दिन चंद्रिका दरबार में नृत्य कर रही थी लोग मंत्रमुग्ध होकर उसका नृत्य देख रहे थे जब नृत्य समाप्त हुआ तो सभी ने ताली बजाकर चंद्रिका का अभिवादन किया लेकिन दर्शक दीर्घा में बैठा एक नवयुवक जोर जोर से हंसने लगा ।राजा वीरभान को बड़ा क्रोध आया उन्होंने इसे चंद्रिका का अपमान समझा। उन्होंने सैनिकों से कहकर उसे पकड़वा कर दरबार में हाजिर किया और उसके हंसने का कारण पूछा।


वह हाथ जोड़कर बोला"क्षमा करें महाराज ।मुझे से गलती बर्दाश्त नहीं होती और मैं यहां बैठे सभी ज्ञानी जनों की बुद्धिमत्ता पर हंस रहा था क्योंकि इस नर्तकी ने गीत के अंतरे में जोर भाव भंगिमा बनाई थी वो ग़लत थी। मुझे इसलिए हंसी आ गई।"


राजा ने कड़क कर पूछा,"तुम कौन हो और तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारी राज नर्तकी पर हंसने की ।"


तभी वह युवक नम्रता से बोला,"महाराज मैं कुच्छल पुर का रहनेवाला एक अदना सा मूर्तिकार हूं ।  मेरा नाम देवदत्त है ।मैं अपनी कलाकृति में एक से एक भाव भंगिमा बनता हूं ।मात्र कुछ ही घंटों में सामने बैठें व्यक्ति की हूबहू मूर्ति बना सकता हूं । मैंने यहां की राज नर्तकी की बड़ी प्रशंसा सुनी थी कि वो भाव भंगिमा बनाने में माहिर हैं लेकिन जब मैंने उनकी गलती देखी तो मुझे हंसी आ गई।"


राजा ने उस मूर्तिकार को उसी समय राज नर्तकी चंद्रिका की मूर्ति बनाने को कहा ।उसी समय दरबार में एक बड़ा सा पत्थर मंगवाया गया और छैनी हथौड़ी देकर मूर्तिकार को बैठा दिया गया ।वहीं उस मूर्तिकार ने चंद्रिका को एक विशेष मुद्रा में खड़े होने को बोला जो चंद्रिका हो नहीं पा रही थी तो देवदत्त उसकी सहायता करने उसके समीप चला गया ।वो चंद्रिका को जैसे मोड़ रहा था वो वैसे ही मुड़ती चली जा रही थी ।एक मदहोशी सी छा गई थी चंद्रिका पर देवदत्त को देखकर ।वह टकटकी लगाए उसे ही देखे जा रही थी।उसे ये मान भी नहीं रहा कि वो दरबार में खड़ी है और सारे दरबारी उसके यूं टकटकी लगाकर देखने पर खुसर-पुसर कर रहे हैं।पर कहते हैं ना जब आंखों के रास्ते जब कोई दिल में उतर जाता है तो उसे स्वयं को भी नहीं पता होता कि ये कब हुआ और कैसे ….?



कहानी अभी जारी है………..

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